वो 1990 वाली सर्दी याद आ रही है...



जाने किस बक्से में बंद भीनी भीनी सी ,

किसी रज़ाई में लिपटी हुई सी, 

कुछ पुरानी कुछ अपनी सी,

एक खुशबु आ रही है, 

हाँ आज वो 1990 वाली सर्दी याद आ रही है...


पापा का वो ऑफिस से आना, 

हांथ में गरम गरम मूंगफली की थैली का लहराना,

फिर चुप चाप हीटर के सामने बैठकर मुस्कुराना, 

और पूछना देखो क्या मम्मी किचन में  मटर की घुगरी बना रही हैं?

सच वो 1990 वाली सर्दी याद आ रही है...


सुबह सुबह आंखें खोलते ही कोहरे का घिरना,

फिर पापा का अख़बार में स्कूल की छुट्टी चेक करना,

अरे.. वो मम्मी के शॉल में ही लिपट जाना, 

और उस दुलार से ही अपनी ठंड भगाना, 

उस गरमाहट की भूख अब भी बहुत तड़पा रही है, 

कैसे कहूँ कि वो 1990 वाली सर्दी याद आ रही है....


31 दिसम्बर को दूरदर्शन के साथ बारह बजे तक नए साल का इन्तेज़ार,

और बनाना ग्रीटिंग कार्ड अपने हाथों से बार बार, 

गरम गरम गाजर का हलवा जिसकी खुशबु थी अपरम्पार,

उस नए साल की पुरानी यादें आंखों को छलका रहीं है,

ओस की तरह ही भीगी  पलकें लिए वो 1990 वाली सर्दी याद आ रही है...


पढ़ते -पढ़ते  कंबल के अंदर से दीदी को ठंडे पैरों से छूकर चिढ़ना,

मम्मी के बुनते हुए स्वेटर के फंदे गिरना,

शबनम की बूँदों को पत्तियों से हिलाना, 

मेरे गिरने पर मुझे उठाने वालों की याद सता रही है, 

कुछ ठंड में आग की ताप सी ,

कुछ Kodak कैमरे की रील सी,

कुछ चित्रहार सी, 

कुछ गरम पानी के फ़्लास्क सी 

कुछ ठंडे पानी के कंपन सी,

कुछ जाड़े में पैरों में दौड़ती जमीन की ठिठुरन सी, 

कुछ अपनी सी कुछ तुम्हारी सी,


जाने किस बक्से में बंद भीनी भीनी सी ,

एक खुशबु आ रही है, 

 हाँ  आज  वो 1990 वाली सर्दी याद आ रही है.....

- श्वेता खरे 












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